Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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वीरपाल-महाराज, आप तो कई महीनों से इस इलाके में हैं, क्या आपको इन लोगों की करतूतें मालूम नहीं हैं? ये लोग प्रजा को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। इनमें न दया है, न धर्म। हैं हमारे ही भाईबंद, पर हमारी ही गरदन पर छुरी चलाते हैं। किसी ने जरा साफ कपड़े पहने, और ये लोग उसके सिर हुए। जिसे घूस न दीजिए, वही आपका दुश्मन है। चोरी कीजिए, डाके डालिए, घरों में आग लगाइए, गरीबों का गला काटिए,कोई आपसे न बोलेगा। बस, कर्मचारियों की मुट्ठियाँ गर्म करते रहिए। दिन-दहाड़े खून कीजिए, पर पुलिस की पूजा कर दीजिए, आप बेदाग छूट जाएँगे, आपके बदले कोई बेकसूर फाँसी पर लटका दिया जाएगा। कोई फरियाद नहीं सुनता। कौन सुने, सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यही समझ लीजिए कि हिंसक जंतुओं का एक गोल है, सब-के-सब मिलकर शिकार करते हैं और मिल-जुलकर खाते हैं। राजा है, वह काठ का उल्लू। उसे विलायत में जाकर विद्वानों के सामने बड़े-बड़े व्याख्यान देने की धुन है। मैंने यह किया और वह किया, बस डीगें मारना उसका काम है। या तो विलायत की सैर करेगा, या यहाँ अंगरेजों के साथ शिकार खेलेगा, सारे दिन उन्हीं की जूतियाँ सीधी करेगा। इसके सिवा उसे कोई काम नहीं, प्रजा जिए या मरे, उसकी बला से। बस, कुशल इसी में है कि कर्मचारी जिस कल बैठाएँ उसी कल बैठिए, शिकायत न कीजिए,जबान न हिलाइए, रोइए, तो मुँह बंद करके। हमने लाचार होकर इस हत्या-मार्ग पर पग रखा है। किसी तरह तो इन दुष्टों की आँखें खुलें। इन्हें मालूम हो कि हमें भी दंड देनेवाला कोई है। ये पशु से मनुष्य हो जाएँ।

विनय-मुझे यहाँ की स्थिति का कुछ ज्ञान तो था; पर यह न मालूम था कि दशा इतनी शोचनीय है। मैं अब स्वयं राजा साहब से मिलूँगा और यह सारा वृत्तांत उनसे कहूँगा।
वीरपाल-महाराज, कहीं ऐसी भूल भी न कीजिएगा, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे। यह अंधेर-नगरी है। राजा में इतना ही विवेक होता, तो राज्य की यह दशा ही क्यों होती? वह उलटे आप ही के सिर हो जाएगा।
विनय-इसकी चिंता नहीं। संतोष तो हो जाएगा कि मैंने अपने कर्तव्‍य का पालन किया! मुझे तुमसे भी कुछ कहना है। तुम्हारा यह विचार कि इन हत्याकांडों से अधिकारीवर्ग प्रजापरायण हो जाएगा, मेरी समझ में निर्मूल और भ्रमपूर्ण है। रोग का अंत करने के लिए रोगी का अंत कर देना न बुध्दि-संगत है, न न्याय-संगत। आग आग से शांत नहीं होती, पानी से शांत होती है।
वीरपाल-महाराज, हम आपसे तर्क तो नहीं कर सकते; पर इतना जानते हैं कि विष विष ही से शांत होता है। जब मनुष्य दुष्टता की चरम सीमा पर पहुँच जाता है, उसमें दया और धर्म लुप्त हो जाता है, जब उसके मनुष्यत्व का सर्वनाश हो जाता है, जब वह पशुओं के-से आचरण करने लगता है, जब उसमें आत्मा की ज्योति मलिन हो जाती है, तब उसके लिए केवल एक ही उपाय शेष रह जाता है, और वह है प्राणदंड। व्याघ्र-जैसे हिंसक पशु सेवा से वशीभूत हो सकते हैं! पर स्वार्थ को कोई दैविक शक्ति परास्त नहीं कर सकती।
विनय-ऐसी शक्ति है तो। हाँ, केवल उसका उचित उपयोग करना चाहिए।
विनय ने अभी बात भी न पूरी की थी कि अकस्मात् किसी तरफ से बंदूक की आवाज कानों में आई। सवारों ने चौंककर एक-दूसरे की तरफ देखा और एक तरफ घोड़े छोड़ दिए। दम-के-दम में घोड़े पहाड़ों में जाकर गायब हो गए। विनय की समझ में कुछ न आया कि बंदूक की आवाज कहाँ से आई और पाँचों सवार क्यों भागे। डाकिए से पूछा-ये सब किधर जा रहे हैं?
डाकिया-बंदूक की आवाज ने किसी शिकार की खबर दी होगी, उसी तरफ गए हैं। आज किसी सरकारी नौकर की जान पर जरूर बनेगी।
विनय-अगर यहाँ के कर्मचारियों का यही हाल है, जैसा इन्होंने बयान किया तो मुझे बहुत जल्द महाराज की सेवा में जाना पड़ेगा।
डाकिया-महाराज, अब आपसे क्या परदा है; सचमुच यही हाल है। हम लोग तो टके के मुलाजिम ठहरे, चार पैसे ऊपर से न कमाएँ तो बाल-बच्चों को कैसे पालें; तलब है, वह साल-साल भर तक नहीं मिलती, लेकिन यहाँ तो जितने ही ऊँचे ओहदे पर है, उसका पेट भी उतना ही बड़ा है।

दस बजते-बजते दोंनों आदमी जसवंतनगर पहुँच गए। विनय बस्ती के बाहर ही एक वृक्ष के नीचे बैठ गए और डाकिए से जाने को कहा। डाकिए ने उनसे अपने घर चलने का बहुत आग्रह किया। जब वह किसी तरह न राजी हुए, तो अपने घर से उनके वास्ते भोजन बनवा लाया। भोजन के उपरांत दोनों आदमी उसी जगह लेटे। डाकिया उन्हें अकेला छोड़कर घर न आया। वह तो थका था, लेटते ही सो गया, पर विनय को नींद कहाँ! रानीजी के पत्र का एक-एक शब्द उनके हृदय में काँटे के समान चुभ रहा था। रानी ने लिखा था-तुमने मेरे साथ, और अपने बंधुओं के साथ दगा की है। मैं तुम्हें कभी क्षमा न करूँगी। तुमने मेरी अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दिया। तुम इतनी आसानी से इंद्रियों के दास हो जाओगे, इसकी मुझे लेश-मात्र भी आशंका न थी। तुम्हारा वहाँ रहना व्यर्थ है, घर लौट आओ और विवाह करके आनंद से भोग-विलास करो। जाति-सेवा के लिए जिस आचरण की आवश्यकता है, जिस मनोबल की आवश्यकता है, वह तुमने नहीं पाया और न पा सकोगे। युवावस्था में हम लोग अपनी योग्यताओं की बृहत्-कल्पनाएँ कर लेते हैं। तुम भी उसी भ्रांति में पड़ गए। मैं तुम्हें बुरा नहीं कहती। तुम शौक से लौट आओ, संसार में सभी अपने-अपने स्वार्थ में रत हैं, तुम भी स्वार्थ-चिंतन में मग्न हो जाओ। हाँ, अब मुझे तुम्हारे ऊपर वह घमंड न होगा, जिस पर मैं फूली हुई थी। तुम्हारे पिताजी को अभी यह वृत्तांत मालूम नहीं है। वह सुनेंगे, तो न जाने उनकी क्या दशा होगी। किंतु यह बात अगर तुम्हें अभी नहीं मालूम है, तो मैं बताए देती हूँ कि अब तुम्हें अपनी प्रेम-क्रीड़ा के लिए कोई दूसरा क्षेत्र ढूँढ़ना पड़ेगा; क्योंकि मिस सोफ़िया की मँगनी मि. क्लार्क से हो गई है और दो-चार दिन में विवाह भी होनेवाला है। यह इसीलिए लिखती हूँ कि तुम्हें सोफ़िया के विषय में कोई भ्रम न रहे और विदित हो जाए कि जिसके लिए तुमने अपने जीवन की और अपने माता-पिता की अभिलाषाओं का खून किया, उसकी दृष्टि में तुम क्या हो!

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